अवधूत उमानंदनाथ एक ऐसे साधक को मै जानता हूं जिन्होंने मुझे कुछ अनुभव महाकैलाश की अनन्यतम स्थिति को पाकर उद्धृत किए। उनको यहां व्यक्त करना अप्रासंगिक ना होगा। उन्होंने स्व अनुभूति के स्तर पर पहुंच कर जो उस परम अवस्था में देखा उसे कुछ यूं व्यक्त किया -
मै जब कैलाश के सम्मुख था तो ध्यानस्थ हो गया। मुझे नहीं पता वो क्या स्थिति थी लेकिन मैंने खुद को एक कंदरा के सम्मुख पाया। मै किसी प्रेरणा से उसमे प्रवेश कर गया। अंदर कुछ उतर कर एक बड़ा स्थान था जिसमें कुछ मृग चर्म आसन के रूप में पड़े थे उनमें कुछ रिक्त थे लेकिन तीन आसन पर तीन विशाल देहधारी संत बैठे थे जिनका कोई निश्चित वेश परिधान नहीं था। फिर मैंने देखा कि मेरे पीछे एक संत और आ गए उनके आते ही वे ध्यानस्थ संत उठ खड़े हुए और आने वाले संत को प्रणाम करने लगे। फिर उनके बीच इशारों में कोई बात हुई। मैंने ये बड़े गौर से महसूस किया कि कोई किसी से शब्दों में बोल नहीं रहा है। फिर हम पांच लोग उसी गुफा के अंदर उचाई पर चढ़ने लगे काफी सकरा मार्ग था बहुत देर तक चलने के बाद एक बिबर के सम्मुख हम सब पहुंचे। सबसे आश्चर्य की बात थी कि उस संकरे मार्ग में पूर्ण प्रकाश था। बिबर इस तरह से था जैसे गर्मियों में काली मिट्टी चटक जाती है और उसमें काफी लंबा और गहरा बिबर बन जाता है कुछ उसी तरह का। हम पांच लोग उसी विवर से जब ऊपर आए तो मैंने खुद को बहुत ऊंचे पर्वत शिखर पर पाया जो बर्फ से आच्छादित था और कुछ विस्तार लिए समतल था जैसे कुछ पठार की तरह लेकिन जहां से हम बाहर आए थे उसके बगल में एक छोटी पहाड़ी थी जिससे सामने का दृश्य मुझे दिख रहा था। मेरे सामने शिव के अनेक गण विभिन्न वाद्य यंत्र लिए सावधान की मुद्रा में खड़े थे जैसे किसी की पूजा अर्चना करने को तत्पर हों और बस हम लोगों का ही इंतजार हो। हम पांचों लोग उन गणों के साथ खड़े ना होकर आगे चले गए जहां बहुत से ऋषि भी उसी तरह खड़े थे। और हम पांच भी उन्हीं संतों के साथ खड़े हो गए। जैसे ही सामने निगाह गई तो जो पहाड़ी पहले अवरोध में थी उसी के बगल में एक समतल शुभ्र चट्टान पर शिवा शिव को बैठे देखे और बस। इतना ही बोल सके वो मुझे फिर को लंबे समय के लिए स्थिर हो गए।
इस तरह के उनके दो चार अनुभव है अंतर कैलाश की आंतरिक अवस्था के। सभी को व्यक्त करना आवश्यक नहीं है। एक बात निश्चित है कि भले ही यह यात्रा स्थूल हो किन्तु तुरीय अवस्था के लिए एक मार्ग तो निश्चित करती ही है।
जयति अवधूतेश्वर
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